१२ मार्च, १९५८ 

 

 ''चेतनाकी ओरसे नवीन अभिव्यक्तिकी, अर्थात्, मानव अभिव्यक्ति- की यह व्याख्या दी जा सकती है कि यह वैश्व प्रकृतिमें अंतर्लीन हुई छिपी 'चेतनाका उभार है । परंतु ऐसी दशामें उस चेतनाके उन्मज्जनका वाहन होनेके लिये कोई भौतिक आकार पहलेसे ही विद्यमान रहना चाहिये, वह वाहन स्वयं उन्मज्जनकी शक्तिके द्वारा नवीन आंतरिक सृष्टिकी आवश्यकताओंके अनु- कूल बना दिया गया होगा । अथवा फिर यह हो सकता है कि

 

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       पहलेके भौतिक प्ररूपों था प्रतिमानोंसे तेजीसे दूर हटनेकी किया- ने नवीन प्राणीको जन्म दिया होगा । परंतु चाहे जिस किसी परिकल्पनाको क्यों न स्वीकार किया जाय, इसका अर्थ होता है वैकासिक प्रक्यिा, - भेद है केवल अपसरण था संक्रमणकी विधि एवं यंत्रावलीमें । अथवा, इसके विपरीत, यह हों सकता है कि नीचेसे चेतनाका उभार न होकर, हमसे ऊपरके मनोमय स्तरसे 'मन'का अवतरण, संभवत: अंतरात्मा या मनोमय पुरुषका पार्थिव प्रकृतिमें अवतरण हुआ हो । ऐसी दशामें यह कठिनाई उपस्थित होती है कि मानव शरीर कैसे प्रकट हुआ, क्योंकि यह अत्यधिक जटिल एवं दुःसाध्य अंग सहसा बना या अभिव्यक्त हो गया होगा यह कल्पना करना कठिन है; कारण, प्रकियामें ऐसी आश्चर्यजनक द्रुत गति, यद्यपि सत्ताके अतिभौतिक स्तरोंपर सर्वथा संभव हो सकती है, पर भौतिक 'ऊर्जा' की सामान्य संभावनाओं या शक्यताओंमें संभव प्रतीत नहीं होती । यहां वह तभी घट सकती है जब कोई अतिभौतिक शक्ति या प्रकृतिका कोई नियम हस्तक्षेप करे अथवा स्रष्टा 'मन पूर्ण शक्तिके साथ और साक्षात् 'जड़-तत्त्व' पर क्यिा करे । अतिभौतिक' शक्ति' और स्रष्टाकी क्यिाको 'जडू-तत्व'- मे होनेवाले प्रत्येक नवीन आविर्भावमें स्वीकार किया जा सकता है; प्रत्येक ऐसा आविर्भाव वस्तुत: ऐसा चमत्कार है जो एक ऐसी गुप्त 'चेतना' के द्वारा घटित किया जाता है जिसे छिपी हुई 'मन ऊर्जा' या 'प्राणिक ऊर्जाा अवलंब प्राप्त है; परंतु यह क्रिया कहीं भी साक्षात्, स्पष्ट, स्वयं-पर्याप्त दिखायी नहीं देती; यह सर्वदा पहलेसे ही तैयार हुए भौतिक आधार (शरीर) पर अध्यारोपित की जाती है और प्रकृतिकी किसी प्रतिष्ठित पद्धतिके विस्तारके द्वारा कार्य करती है । यह अधिक मनोगम्य है कि किसी पहलेसे विद्यमान शरीरमें अतिभौतिक अन्त:स्रवणके प्रति उन्मीलन था जिससे कि बह नवीन शरीरमें रूपांतरित हो गया; परंतु भौतिक प्रकृतिके अतीत इतिहासमें ऐसी कोई घटना घटी हो इसे सरलतासे नहीं माना जा सकता; ऐसी घटना होनेके लिये यह आवश्यकता प्रतीत होती है कि किसी अदृश्य मनोमय पुरुषने किसी ऐसे शरीरके निर्माणमें हस्तक्षेप किया हो जिसमें बह निवास करना चाहता था; अथवा फिर, यह हो सकता है कि स्वयं 'जडतत्त्'मेंसे ही किसी ऐसे मनो- मय पुरुषका पहले ही विकास हो गया था जो अतिभौतिक शक्ति- को ग्रहण करने और उसे अपनी भौतिक सत्ता (शरीर) के कठोर

 

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          एवं संकीर्ण नियमोंपर आरोपित करनेमें पहलेसे ही समर्थ था । अन्यथा हमें यह मानना पड़ेगा कि कोई ऐसा शरीर अस्तित्वमें आ चुका था जो पहलेसे ही इतना अधिक विकसित था कि वह एक विशाल मानस अन्त:स्रवणके ग्रहण करनेमें उपयुक्त था अथवा अपनेमें मनोमय पुरुषके अवतरणके प्रति मननशील अनु- क्यिा करनेमें समर्थ था । परंतु ऐसा होनेके लिये यह मानना होगा कि शरीरमें मनका पहले ही उस  विकास हो गया था जंहापर कि ऐसी ग्रहणशीलता संभव है । यह सर्वथा बुद्धि- गम्य है कि नीचेसे ऐसे विकास और ऊपरसे ऐसे अवतरणने पार्थिव प्रकृतिमें मनुष्यके आविर्भावमें सहयोग दिया हो । संभव है पशुमें पहलेसे ही विद्यमान अंतर्भूत चैत्य-तत्वने स्वयं मनोमय पुरुषको सप्राण 'जडू-तत्त्व'को क्षेत्रमें अवतरण करनेके लिये इस उद्देश्यसे आह्वान किया हो कि वह पहलेसे ही क्रिया करनेवाली प्राणिक-मानस ऊर्जाको ग्रहण करके उच्चतर मनमें ऊपर उठा ले । परंतु फिर भी यह विकासकी ही एक प्रक्रिया होगी, ऐसी प्रक्यिा कि जिसके अनुसार उच्चतर स्तर पार्थिव प्रकृतिमें पहलेसे ही विद्यमान अपने निजी तत्त्वके प्रकट होने और विशाल होनेमें सहायता देनेके लिये केवल हस्तक्षेप करता है ।''

 

( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८३९-४०)

 

 समस्याकी कठिनाई यह है कि रूपान्तर ओर सृजनकी इस प्रक्रियामें केवल मनोमय सत्ता हीं रुचि ले सकी, ओर पशु-जातिमें मनोमय चेतना इतनी पर्याप्त कही थी कि वह इस प्रक्रियामें रुचि लें सकती ।   

 

         पशुओंके पास होनेवाली घटनापर ध्यान देनेका, उससे अवगत होनेका या उसे याद रखनेका कोई साधन नहीं था । और इसीलिये धराके इतिहास- का यह भाग लुप्तप्राय हो गया । इस रूपान्तर-कर्मका अनुसरण कर सकने- के लिये और इसकी याद बनाये रखनेके लिये मनुष्यके जैसी मानसिक क्षमताको हमारे लिये हस्तक्षेप करना चाहिये... । वास्तवमें हम कल्पना ज्यादा करते है, याद कम । यह तो विदित है कि चैत्य पुरुष इस सबमेसे गुजर चुका है, लेकिन उसने इसे मनमें सजाकर नही रखा । चैत्य पुरुषकी स्मृति चैत्य स्मृति है जो बिलकुल दूसरे ढंगकी होती है; मानसिक स्मृतिकी तरह यह ऐतिहासिक नही होती जो घटनाओंका ठीक- ठीक व्योरा रख सकें ।

 

         लेकिन अब, जब कि हम नये रूपांतरकी, नये प्रादुर्भावकी, जैसा कि

 

यह यहां कहलाता है, देहलीपर खड़े है और मानवीय मानसिक सत्ता और अतिमानसिक सत्ताके बीच रूपांतरकी प्रक्रियामें भाग लेनेवाले है, हम मन- की इस ऐतिहासिक क्षमतासे लाभ उठायेंगे जो घटना-कर्मका अनुसरण करेगी ओर उसे लिपिबद्ध कर लेगी । अतः उस दृष्टिसे मी इस समय जो कुछ प्रत्यक्ष हो रहा है वह धरतीके इतिहासमें एकदम अनूठा है । शायद - बल्कि निश्चयपूर्वक, जब हम रूपांतरकी प्रक्रियाके बिलकुल छोरतक बढ़ते जायेंगे तो हमें सब पिछले रूपांतरोंकी चाबी मिल जायगी; यानी, जब प्रक्रिया दोहरायी जायगी तो जो कुछ हम अब समझना चाह रहे हैं उसे निश्चयताके साथ जान जायेंगे । इस बार यह प्रक्रिया दोहरायी जायगी मानसिक और अतिमानसिक सत्ताके बीच ।

 

        अतः निरीक्षण-शक्तिके एक विशेष विकासके लिये तुम्हें, आमंत्रण है कि यह सब अर्ध-स्वप्तावस्थामें ही न हो जाय, तुम एक नये जीवनमें जागो और तुम्हें, पता भी न चले कि यह सब कैसे हों गया ।

 

          मनुष्यको बहुत चौकस और सजग रहना होगा, और छोटे-छोटे आंतरिक मनोवैज्ञानिक व्यापारोंमें रस लेते रहनेके बजाय, जो कि... बहुत पुराने ढंगके है ओर उस सारे मानव इतिहाससे संबंधित है जो बहरहाल अपनी नवीनता खो चूक। है, उन चीजोकी ओर ज्यादा ध्यान देना बेहतर होगा जो अधिक गुरुता लिये है, अधिक सूक्ष्म है, अधिक निर्वेयक्तिक है, और वे (वास दित्श्चस्पीवाली नयी खोजोंतक लें जायेंगीं ।

 

        बिना पक्षपात या पसन्दके, बिना अहं और आसक्तिके सूक्ष्म बुद्धिकी आंखें खोला और प्रति दिन होनेवाली घटनाओंको देखो ।

 

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